प्रियांशु कुमार समस्तीपुर बिहार
महँगी और अधिक संसाधन युक्त खेलों के दौर में गांवों से ताल्लुक रखने वाले बच्चे प्रतिभावान होने के बाबजूद पीछे रह जा रहें हैं। ऐसे में नए सपने के भारत को धरातल पर साकार होते हम शायद ही देख पाएं। एथलेटिक्स जैसे सीमित संसाधन वाले खेलों में इनके पूरक होने की अपार संभावनाएं देखी जा सकती है। बीते वर्ष के ओलंपिक खेलों का आकलन किया जाए तो ग्रामीण क्षेत्रों का अधिक दब-दबा रहा है। जिनकी रूचि सेना, पुलिस या रक्षा संबंधित विभागों में सेवा देने की है उनके लिए एथलेटिक खेल वरदान साबित होगी।
क्रिकेट, फुटबॉल, हॉकी, बास्केटबॉल जैसे अन्य खेलों के लिए पर्याप्त मैदान, असीमित संसाधनों की आवश्यकता होती है, जो कि वर्तमान समय में गांवों में उपलब्ध होना मिल का पत्थर साबित होगा। वह इसलिए क्योंकि पहले स्कूल, भवन निर्माण या सरकारी आधारभूत संरचनाओं के आसपास पर्याप्त खेल-कूद, अन्य काम-प्रयोजनों के लिए जगह छोड़े जाते थे, जो थोड़े ही दिनों बाद खेल मैदान में परिवर्तित नजर आता था। लेकिन अब वैसी व्यवस्था नहीं रही। किसान, मजदूर वर्ग की उतनी कमाई नहीं की अपने बच्चों को खेल संबंधित संसाधन उपलब्ध करा सके। संसाधनों के अभाव में इनडोर गेम्स की कल्पना भी उनके लिए सपना ही बन कर रहा जाता है। एक शब्द में अगर कहा जाए तो संसाधनों के अभाव में प्रतिभा दम तोड़ देती है।
पंजाब, हरियाणा जैसे खेल समृद्ध राज्य हर चार वर्ष पर आयोजित होने वाले खेलों के महाकुंभ ओलंपिक में परचम लहराकर देश को गौरवान्वित महसूस कराते हैं। लेकिन वहीं बिहार के परिपेक्ष्य में कहा जाए तो भ्रष्टाचार यहाँ भी पाँव जमाने से बाज नहीं आया। प्रशिक्षण केंद्र, संसाधनों के अभाव में राज्य स्तरीय खेलों में भी छाप अंकित नहीं कर पा रहा है। खेलों के क्षेत्र में भी क्रांति की आवश्यकता महसूस की जा रही है। ऐसे में गाँव के युवकों के लिए एथलेटिक्स एक जीवनदायक विकल्प बन सकता है।