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आधुनिकता के दौर में गायब हो गई डोली व कहार की परंपरा

रमेश कुमार पांडेय
सासाराम(रोहतास)।बदलते परिवेश और आधुनिकता के दौर ने अपनी पुरानी पहचान और संस्कृति को मानो काफी पीछे छोड़ दिया है।इसी कड़ी में बात करते हैं डोली की, जिसे आने वाली पीढ़ी इस शब्द को सिर्फ किताबों के पन्नों पर ही जान सकेगी।शादी विवाह में सामान ढोने के लिए बैलगाड़ी और दूल्हा- दूल्हन के लिए ‘डोली‘ का चलन था।शेष बाराती पैदल चला करते थे।कई कई गांवो में किसी एक व्यक्ति के पास तब डोली हुआ करती थी।जो उसकी शान की प्रतीक भी थी।शादी विवाह के मौके पर लोगो को पहले से बुकिंग के आधार पर डोली बगैर किसी शुल्क के मुहैय्या होती थी। बस ढोने वाले कहांरो को ही उनका मेहनताना देना पड़ता था।जिसका दोनो तरफ का हिस्सा खिड़की की तरह खुला होता था।अंदर आराम के लिए गद्दे बिछाये जाते थे। ऊपर खोखले मजबूत बांस के हत्थे लगाये जाते थे। जिसे कंधो पर रखकर कहांर ढोते थे।

प्रचलित परंपरा और रश्म के अनुसार शादी हेतु बारात निकलने से पूर्व दूल्हे की सगी सम्बंधी महिलाएं डोल चढ़ाई रश्म के तहत बारी बारी दुल्हे के साथ डोली में बैठती थी। इसके बदले कहांरो को यथा शक्ति दान देते हुए शादी करने जाते दूल्हे को आशीर्वाद देकर भेजती थी। दूल्हें को लेकर कहांर उसकी ससुराल तक जाते थे। इस बीच कई जगह रूक रूक थकान मिटाते और जलपान करते कराते थे। इसी डोली से दूल्हे की परछन रश्म के साथ अन्य रश्में निभाई जाती थी। अगले दिन बरहार के रूप में रूकी बारात जब तीसरे दिन वापस लौटती थी तब इस डोली में मायके वालों के बिछुड़ने से दुखी होकर रोती हुई दुल्हन बैठती थी। ओर रोते हुए काफी दूर तक चली जाती थी। जिसे हंसाने व अपनी थकान मिटाने के लिए कहांर तमाम तरह की चुटकी लेते हुए गीत भी गाते चलते थे।तेजी से बदलकर आधुनिक हुए मौजूदा परिवेश में तमाम रीति रिवाजांे के साथ डोली का चलन भी अब पूरी तरह समाप्त हो गया।

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