सासाराम
सासाराम ब्यूरो चीफ संदीप भेलारी
रोहतास पसीना बहाते थे। ईमानदारी से कमाते थे। घर का चूल्हा जलता था। पेट की भूख मिटती थी लेकिन आज मुसीबत से जूझ रहे हैं। कोई मीलों पैदल चल रहा है, कोई बीच में ही टूट रहा है, कोई भूख से लड़ रहा है, कोई सिस्टम से हार रहा है, किसी की नौकरी छूट गई, किसी के सपने टूट गए, कोई रोड पर रोटी मांग रहा है, कोई ठेले पर सब्जी बेच रहा है…जी हां, कोरोना के प्रहार ने मजदूरों को बेजार कर दिया है। जिंदगी को चौराहे पर लाकर खड़ा कर दिया है। इस बार का मजदूर दिवस, बस कैलेंडर की तारीख बन कर रह गया है। ऐसे ही कुछ मुसीबत बन खड़ा हो गया चंदन कुमार के सामने ट्रेन-बस सब बंद थीं। घर का राशन भी इक्का-दुक्का दिन का बाकी था। जिन ठिकानों में रहते थे उसका किराया भरना नामुमकिन लगा। हाथ में न के बराबर पैसा था। और जिम्मेदारी के नाम पर बीवी बच्चों वाला भरापूरा परिवार था। तो फैसला किया पैदल ही निकल चलते हैं। चलते-चलते पहुंच ही जाएंगे। यहां रहे तो भूखे मरेंगे। चंदन कुमार कुमार सपने लेकर दिल्ली गए थे। मजदूरी करते थे। रोज खा-पीकर तीन-चार सौ रुपये बचा लेते थे। लॉकडाउन की रात ट्रेन में बैठ गए। ट्रेन पटना आकर रुक गई और जिंदगी अटक गई