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संस्कृत के प्रति भ्रांतियों को दूर करने की जरूरत : प्रो0 शास्त्री

— मिथिला में है संस्कृत का वृहत भंडार

— कहा- उपाधि प्राप्ति के लिए कम से कम एक पांडुलिपि के प्रकाशन की हो अनिवार्यता
— आधुनिक संसाधनों का उपयोग कर शोध कार्यों को फैलाएं

दरभंगा/बिहार
कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय में गुरुवार को आयोजित सातवें दीक्षांत समारोह के मुख्य अतिथि राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान , नई दिल्ली के कुलपति प्रो0 पी0एन0 शास्त्री ने कहा कि इन दिनों संस्कृत भाषा के प्रति कई जानी- अनजानी भ्रांतियां समाज मे फैल गयी हैं। इससे देववाणी को नुकसान हो रहा है।इसलिए जरूरत है संस्कृत में प्रतिपादित मौलिक विचारों को जनमानस तक पहुंचाने की।ताकि व्याप्त भ्रांतियां व आशंकाएं निर्मूल हो सके और संस्कृत भी निर्वाध गति से फल फूल सके।
साथ ही उन्होंने कहा कि संस्कृत में हो रहे शोध कार्यों से निकले नए नए तथ्यों को विभिन्न माध्यमों के जरिये देश-विदेशों में प्रचारित-प्रसारित करने की नितांत जरूरत है। इन माध्यमों में दूरदर्शन, इंटरनेट, पत्र पत्रिकाएं समेत अन्य संसाधनों का भरपूर उपयोग किया जा सकता है।


अपने दीक्षांत भाषण को आगे बढ़ाते हुए प्रो0 शास्त्री ने संस्कृत विश्वविद्यालय को एक महत्वपूर्ण सुझाव यह दिया कि यहां से उपाधि प्राप्त करने वाले छात्रों के लिए कम से कम एक पांडुलिपि के संशोधन, प्रकाशन, मुद्रण या फिर सम्पादन की अनिवार्यता सुनिश्चित कर देना चाहिए। इस प्रयास से दुर्लभ ग्रन्थों का प्रकाशन हो सकेगा और जो पांडुलिपियाँ पंडितों के घरों में , पेटियों में, पुस्तकालयों में जैसे तैसे पड़ी हुईं हैं या कैद हैं उसे पुनर्जीवन मिलेगा। इस अवस्था में पड़े अनेक ग्रन्थ रत्न के समान हैं जो प्रकाशन के अभाव में इस आधुनिक युग मे भी अज्ञात व अनजान हैं। लगे हाथ उन्होंने यूजीसी से फ़रियाद करते हुए कहा कि उक्त अनिवार्यता से सम्बंधित आदेश अगर इस संस्कृत विश्वविद्यालय को मिल जाता तो संकट में चल रही देवभाषा पर महान उपकार होता।
विश्वविद्यालय के पीआरओ निशिकांत के अनुसार, मुख्य अतिथि प्रो0 शास्त्री ने संस्कृत के विकास व उसकी उपयोगिता के लिए हर सम्भव प्रयास करने की वकालत की। उन्होंने मिथिला को जगत जननी सीता की धरती बताते हुए कहा कि यहां संस्कृत के व्यापक भंडार उपलब्ध है। यहां मीमांसा, न्याय, वेद आदिकाल से ही सम्पोषित होते रहे हैं। उन्होंने संस्कृतानुरागियों और संस्कृतसेवियों से अनुरोध किया कि वे अब जग जाएं और संस्कृत की प्रगति के लिए रोज नए उपायों के साथ कार्यों में लीन हो जाएं। कुछ समय पूर्व यह विद्या राजा -महाराजा के संरक्षण में पल रही थी। उससे और पूर्व यह देवभाषा मानो अभेद्य दुर्ग में कैद थी लेकिन अनेक प्रयासों के बाद वह क़िलाबन्दी टूटी और संस्कृत वहां से निकल कर बाहर आ पायी। इसलिए बिना बिलम्ब किये इसके संवर्धन के लिए चारो ओर से प्रयास होना चाहिए।
संस्कृत भाषा की प्रासंगिकता को रेखांकित करते हुए प्रो0 शास्त्री ने कहा कि बहुत पहले ही वैज्ञानिकों एवम अन्वेषकों ने खुले तौर पर जता दिया है कि सॉफ्टवेयर निर्माण समेत अन्य शोध कार्यों में संस्कृत सबसे अधिक सहयोगी है और मददगार भी। इसलिए यह सर्वश्रेष्ठ भाषा है।

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